शनिवार, 5 नवंबर 2016

एक साझा स्वप्न : नयागाँव में नया घर का ख्याल

हमारे परिवार की छोटी सी लंबी कहानी है।
हमारी सबसे पुरानी स्मृति वेद की ऋचाएँ हैं, फिर रामायण- महाभारत के मिथकों की गलियों से गुजरते हम एक लंबी नींद में सो जाते हैं। अब जो याद है वह ४-५ पीढी़ से ज्यादा पुरानी नहीं है। भारत के पूर्वी प्रदेश बिहार में गंगा नदी के उत्तरी तट पर एक पुराना सा गाँव है- नयागाँव। नाम इस बात का पता देता है कि पुरातन सा दीखने वाला यह गाँव कभी नया था।

हमारे पिता जी बिहार प्रदेश में जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के सर्वोच्च अभियंता पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। उनकी मधुरतम स्मृति इसी नयागाँव से जुड़ी है जहाँ उनका बचपन गुजरा। माताजी का परिवार गंगा के दक्षिणी तट पर स्थित एक गाँव से है जिसका नाम- "मराँची" - मेरे मन में सदैव एक कुतूहल बन कर रहा है कि क्या यहीं के लोग कभी पश्चिमी प्रदेश में सागर तट पर जा कर बसे और बस्ती को नाम दिया "कराँची"!! इस तरह माँ और पिता दोनों ही तरफ से हमारा गंगा तट के गाँव के प्रति एक अनुवांशिक आकर्षण रहा है।

 "इंगलिश समर"- आँग्ल देश में ग्रीष्म ऋतु  सच में बेहद सुंदर होती है- और सबसे सुंदर साल २०१४ के अगस्त माह में , जब माँ और पिता जी महीने भर के लिये यहाँ आये थे। एक सुहानी उज्जवल सुबह, सुबह की चाय के बाद तरोताज़ा हो गपशप के सिलसिले में मन में दबी एक पुरानी ख्वाहिश कि "नयागाँव में एक नया घर हो" फिर से उभर आयी। मम्मी जो "भागवत- श्री कृष्ण" पढ़ रही थीं, ने  अपनी सहमति एवं स्वीकृिति दी। इस स्वीकृिति ने जैसे सपनों में रंग भर दिया। पापा तो सहमत होने ही थे। बड़े और मंझले भाई साहेब को फोन लगाया गया। छोटी बहन राखी, जो कि अब प्रबंधन महाविद्यालय में प्राध्यापिका है, और इस परिवार की "conscience keeper", की सलाह माँगी गयी। मँझले भाई राजीव की प्रतिक्रिया कि यह फिर से बस बातों और ख्यालों का सब्ज़बाग भर तो नहीं, में छिपी उनकी भावनाओं की तीव्रता और स्वप्न को मूर्त रूप देने का संकल्प साफ झलक रहा था। बड़े भाई साहेब संजीव, की व्यवहारिक समझ और अनुभव ही प्रथम प्रश्न "घर हाँ पर कहाँ?" का सही उत्तर दे पाने में सक्षम थी।
और इस तरह एक साझे स्वप्न और संक्लप का बीज सही समय की उर्वर जमीन में पड़ चुका था।

एक साझा स्वप्न : नयागाँव में नया घर का ख्याल

हमारे परिवार की छोटी सी लंबी कहानी है।
हमारी सबसे पुरानी स्मृति वेद की ऋचाएँ हैं, फिर रामायण- महाभारत के मिथकों की गलियों से गुजरते हम एक लंबी नींद में सो जाते हैं। अब जो याद है वह ४-५ पीढी़ से ज्यादा पुरानी नहीं है। भारत के पूर्वी प्रदेश बिहार में गंगा नदी के उत्तरी तट पर एक पुराना सा गाँव है- नयागाँव। नाम इस बात का पता देता है कि पुरातन सा दीखने वाला यह गाँव कभी नया था।

हमारे पिता जी बिहार प्रदेश में जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के सर्वोच्च अभियंता पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। उनकी मधुरतम स्मृति इसी नयागाँव से जुड़ी है जहाँ उनका बचपन गुजरा। माताजी का परिवार गंगा के दक्षिणी तट पर स्थित एक गाँव से है जिसका नाम- "मराँची" - मेरे मन में सदैव एक कुतूहल बन कर रहा है कि क्या यहीं के लोग कभी पश्चिमी प्रदेश में सागर तट पर जा कर बसे और बस्ती को नाम दिया "कराँची"!! इस तरह माँ और पिता दोनों ही तरफ से हमारा गंगा तट के गाँव के प्रति एक अनुवांशिक आकर्षण रहा है।

 "इंगलिश समर"- आँग्ल देश में ग्रीष्म ऋतु  सच में बेहद सुंदर होती है- और सबसे सुंदर साल २०१४ के अगस्त माह में , जब माँ और पिता जी महीने भर के लिये यहाँ आये थे। एक सुहानी उज्जवल सुबह, सुबह की चाय के बाद तरोताज़ा हो गपशप के सिलसिले में मन में दबी एक पुरानी ख्वाहिश कि "नयागाँव में एक नया घर हो" फिर से उभर आयी। मम्मी जो "भागवत- श्री कृष्ण" पढ़ रही थीं, ने  अपनी सहमति एवं स्वीकृिति दी। इस स्वीकृिति ने जैसे सपनों में रंग भर दिया। पापा तो सहमत होने ही थे। बड़े और मंझले भाई साहेब को फोन लगाया गया। छोटी बहन राखी, जो कि अब प्रबंधन महाविद्यालय में प्राध्यापिका है, और इस परिवार की "conscience keeper", की सलाह माँगी गयी। मँझले भाई राजीव की प्रतिक्रिया कि यह फिर से बस बातों और ख्यालों का सब्ज़बाग भर तो नहीं, में छिपी उनकी भावनाओं की तीव्रता और स्वप्न को मूर्त रूप देने का संकल्प साफ झलक रहा था। बड़े भाई साहेब संजीव, की व्यवहारिक समझ और अनुभव ही प्रथम प्रश्न "घर हाँ पर कहाँ?" का सही उत्तर दे पाने में सक्षम थी।
और इस तरह एक साझे स्वप्न और संक्लप का बीज सही समय की उर्वर जमीन में पड़ चुका था।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

भारत: कौन अौर किसका?

भारत के इतिहास का अध्यन मेरे मन को दुखी कर देता है. इसमें, कदम कदम  पर पराजय और मौकों को गवाने की कहानी है. बार .बार वे लोग हार जाते हैं जो इस जमीन और यहाँ की संस्कृति का प्रतिनिधित्व  कर रहे होते हैं. सिन्धु घाटी की सभ्यता का लोप शायद बाहर से आये आक्रामक आर्यों के आक्रमण से हुआ.यहाँ के मूल निवासी पराजित हुए और इसी देश में दुसरे दर्जे के लोग बन कर सदियों से जीते रहे.बौध धर्म का उदय और विस्तार हुआ, प्रचलित पाम्परिक धर्म भी चलता रहा. यह स्थिति शायद अच्छी थी. मगर क्रमशः सामाजिक दोषों से देश ग्रस्त  होता गया.इस्लामिक आक्रमण हुए और आक्रमणकारी विजयी  हुए. जो मुस्लमान यहीं के हो गए और जब उन्होंने बाहरी आक्रमण का सामना किया तो हार गए. महमूद घज्नवी, मोहम्मद घोरी, बाबर, अहमद शाह अब्दाली बहार से आये विजेताओं की फेहरिस्त हैं. इनके विजयी होने का हमारे इतिहास पर बड़ा व्यापक असर हुआ है. पानीपत की तीन लड़ाइयों ने इतिहास का रुख  बदल दिया और तीनों बार जो हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे थे वे हार गए.फिर अंग्रेजों का आना हुआ और आश्चर्य होता है की वो भी जीत गए. उनके जाते जाते पकिस्तान बन गया. देश का बहुत बड़ा हिस्सा यहीं के लोगों के लिए विदेश  हो गया. आज बचे हुए भारत में लोकतंत्र है जिस पर मुझे गर्व और ख़ुशी होती है. मगर यह देश संकटों से ग्रस्त दीखता है. बहुत बड़ी आबादी असंतुष्ट है. मैं चाहता हूँ की भारत बचा  रहे और यहाँ की संस्कृति बची रहे. यह देश बढे और विस्तार करे.चाहता हूँ की पाकिस्तान और बंगलादेश भी हमारे दुश्मन  न होकर हमारे ही बंधू हमारे ही लोग हों.मगर यह क्या है जो मैं बचाना चाहता  हूँ? मैं किसका विस्तार चाहता हूँ? मैं किस संस्कृति की बात कर रहा हूँ? क्या मैं "हिन्दू" धर्म और इसकी व्यवस्था को बनाये  और बचाना चाहता हूँ ? क्या मैं इसका विस्तार चाहता हूँ? शायद हाँ शायद नहीं.अगर सोचूँ तो लगता है की समय समय पर बाहर के लोगों और उनके विचारों का इस देश में आना हमारे देश को समृद्ध और सम्पूर्ण बनाता है. इस्लाम और अंग्रेजो से जो हमारा गहरा मिलना जुलना हुआ है उससे बहुत कुछ अच्छा हुआ है. हम बेहतर हुए हैं. अगर किसी तरह यह आचार विचारों का मिलन बगैर पराजित और परतंत्र हुए हो सकता तो अच्छा होता. मगर यह तो इतिहास है हम इसे बदल नहीं सकते. बदलना अच्छा है और यही समाज को जीवंत रखता है. इसमें मुझे कोई शक नहीं. तो फिर मुझे क्यों बुरा लगेगा अगर पूरा देश बदल कर इंग्लिश बोलने लगे या धर्म परिवर्तन कर लें. मैं इंग्लिश जानता हूँ और बोलता पढता भी हूँ. और यह अच्छा है बुरा नहीं. आप क्या सोचते हैं??????

शनिवार, 2 जनवरी 2016

नव वर्ष की शुभकामनाएँ

नव वर्ष की शुभकामनाएँ!
साल २०१५ बीत चुका है और हम सभी नए वर्ष की ओर एक नई आशा के साथ बढ़ चले हैं। मैं लंबे समय के बाद वर्धमान के माध्यम से आपसे मुखातिब हूँ। आशा करता हूँ कि नये साल में यह सिलसिला पिछले वर्ष की तुलना में बेहतर और नियमित होगा।
ब्लॉग के माध्यम से बहुत से ऐसे शख्स से जुडऩे का मौका मिला जिन्होंने मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। इनमें प्रमुख रहें हैं- ज्ञानदत्त पांडे जी, प्रवीण पांडे जी, नीरज जाट जी, कविराय जोशी जी, मनोज जी , करण समस्तीपुरी जी, और भी बहुत से लोग। नये वर्ष में आप सभी सपरिवार स्वस्थ रहें, सुखी रहें ऐसी कामना करता हूँ।