गुरुवार, 23 जुलाई 2009

जीवन चक्र

एक चक्र पूर्ण होता है।
या, यह आरम्भ है फिर से नए क्रम का?
खैर, जो सबसे मजेदार बात है कि
नए अर्थ उभरते हैं ,
छुपा अनजाना अहम् अचंभित करता है।
एक नए आयाम के प्रसव का दर्द
मैं भोगता हूँ , और फिर
इस नए उद्घाटन के सृजन का सुख ।
आंखों के आँसू में होठों की मुस्कान
घुलती जाती है - अजीब रंग है
सबसे अलग सबसे अनजाना
मन के परत खुलते हैं
धुंध फट जाता है - कुछ दीखता है
चक्र का कोई आरम्भ नहीं और
कहीं पूर्णता भी नहीं
बस यह सतत है
यह जीवन चक्र है।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

क्या आपने बच्चे में कुपोषण देखा है

हमारे देश में बच्चों में कुपोषण एक गंभीर समस्या है। और इसके दूरगामी परिणाम होंगे। कल बीबीसी पर चीन की आर्थिक प्रगति पर एक कार्यक्रम प्रसारित हो रहा था और ऐसा कहा जा सकता है की पिछले २० वर्षों में चीन ने extreme poverty को अपने देश से ख़त्म कर दिया है, हम इस मामले में अभी काफ़ी दूर हैं। हम सबको मिल कर कोशिश करनी चाहिए की कैसे हम अपने परिवेश में बच्चों के कुपोषण को दूर करें।एक तो वर्ग है जो अत्यधिक गरीब और समाज के सबसे नीचले पैदान पर है। उनके लिए तो सरकार को कुछ करना होगा। मगर एक वर्ग ऐसा भी है जो बहुत गरीब तो नहीं हैं मगर अन्य कारणों से उनके घर के बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं। मैं जो कहना चाह रहा हूँ उसका उद्देश्य इन घर के बच्चों के कुपोषण को दूर करना है।आज मैं मुंबई में कार्यरत एक paediatrician डॉ हेमंत जोशी के विचारों से अवगत हुआ। कुपोषण के ख़िलाफ़ उन्होंने जो एक बात सुझाई है वह है -" अन्ना का कोना" - घर के अन्दर एक ऐसा चबूतरा/डलिया हो जहाँ खाने के विभिन्न सामान रखें हो और वह घर के सबसे छोटे बच्चे की पहुँच के अन्दर हो. कई घरों में माँ और पिता शिकायत करते हैं की बच्चे खाना नही खाते, लेकिन शायद अगर खाबे की चीज़ बच्चों की पहुँच में हो और उसपर उनका नियंत्रण हो तो शायद बच्चे इसमे ज्यादा रूचि दिखायेंगे।दूसरी बात है की हम बच्चे को जो भी खिलते हैं उसमे थोड़ा वसा (घी या तेल) मिलाएं। इससे खाने का स्वाद तो बढ़ता ही है और पोषण क्षमता में भी वृद्धि होती है।ये कुच्छ मूल विचार हैं जो बच्चों के पोषण के लिए मदद गार हो सकते हैं१ महँगी चीज़ खरीद कर न खिलाएं जैसे डब्बे का दूध, होर्लिक्क्स, बौर्न्विता, बूस्ट इत्यादि२ घर बे बच्चों के लिए स्वादिष्ट टिकाऊ और पोषक आहार बनायें। मूंगफली, चना , गुड और घी के साथ मिला कर कुछ भी बनायें।३ खाने की कुच्छ स्वादिष्ठ चीज़ हमेशा बच्चे की पहुँच के अन्दर हो- "अन्ना का कोना"४ जब भी कुच्छ दान करने का मन हो तो पोषक आहार खरीद कर वहाँ दें जहाँ बच्चे रहते हों - यह दान ही इश्वर और ब्राहमण को जाएगा।५ जो भी सक्षम हैं वो ऐसे ज्ञान का प्रसार करें।अंततः आप सब इस सन्दर्भ में अपने विचार और ख्यालों को इस हम सबके साथ बाटें।dhayavad

रविवार, 21 जून 2009

कुपोषण के खिलाफ् ज़ंग

हमारे देश में बच्चों में कुपोषण एक गंभीर समस्या है। और इसके दूरगामी परिणाम होंगे। कल बीबीसी पर चीन की आर्थिक प्रगति पर एक कार्यक्रम प्रसारित हो रहा था और ऐसा कहा जा सकता है की पिछले २० वर्षों में चीन ने extreme poverty को अपने देश से ख़त्म कर दिया है, हम इस मामले में अभी काफ़ी दूर हैं।
हम सबको मिल कर कोशिश करनी चाहिए की कैसे हम अपने परिवेश में बच्चों के कुपोषण को दूर करें।
एक तो वर्ग है जो अत्यधिक गरीब और समाज के सबसे नीचले पैदान पर है। उनके लिए तो सरकार को कुछ करना होगा। मगर एक वर्ग ऐसा भी है जो बहुत गरीब तो नहीं हैं मगर अन्य कारणों से उनके घर के बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं। मैं जो कहना चाह रहा हूँ उसका उद्देश्य इन घर के बच्चों के कुपोषण को दूर करना है।
आज मैं मुंबई में कार्यरत एक paediatrician डॉ हेमंत जोशी के विचारों से अवगत हुआ। कुपोषण के ख़िलाफ़ उन्होंने जो एक बात सुझाई है वह है -" अन्ना का कोना" - घर के अन्दर एक ऐसा चबूतरा/डलिया हो जहाँ खाने के विभिन्न सामान रखें हो और वह घर के सबसे छोटे बच्चे की पहुँच के अन्दर हो. कई घरों में माँ और पिता शिकायत करते हैं की बच्चे खाना नही खाते, लेकिन शायद अगर खाबे की चीज़ बच्चों की पहुँच में हो और उसपर उनका नियंत्रण हो तो शायद बच्चे इसमे ज्यादा रूचि दिखायेंगे।
दूसरी बात है की हम बच्चे को जो भी खिलते हैं उसमे थोड़ा वसा (घी या तेल) मिलाएं। इससे खाने का स्वाद तो बढ़ता ही है और पोषण क्षमता में भी वृद्धि होती है।
ये कुच्छ मूल विचार हैं जो बच्चों के पोषण के लिए मदद गार हो सकते हैं
१ महँगी चीज़ खरीद कर न खिलाएं जैसे डब्बे का दूध, होर्लिक्क्स, बौर्न्विता, बूस्ट इत्यादि
२ घर बे बच्चों के लिए स्वादिष्ट टिकाऊ और पोषक आहार बनायें। मूंगफली, चना , गुड और घी के साथ मिला कर कुछ भी बनायें।
३ खाने की कुच्छ स्वादिष्ठ चीज़ हमेशा बच्चे की पहुँच के अन्दर हो- "अन्ना का कोना"
४ जब भी कुच्छ दान करने का मन हो तो पोषक आहार खरीद कर वहाँ दें जहाँ बच्चे रहते हों - यह दान ही इश्वर और ब्राहमण को जाएगा।
५ जो भी सक्षम हैं वो ऐसे ज्ञान का प्रसार करें।
अंततः आप सब इस सन्दर्भ में अपने विचार और ख्यालों को इस हम सबके साथ बाटें।
dhayavad

रविवार, 17 मई 2009

निद्रा का विज्ञान

पिछले गुरुवार को मैं समय से हॉस्पिटल तो पहुँचा था ये सोच कर की अपना काम कुशलता और समय के कुशल प्रबंधन से करूंगा। अभी पहुँचा ही था की मुलाकात कुछ कनीय सहयोगियों से हुई , और उन्होंने बताया कि प्रोफ़ेसर फ्लेमिंग उन्हें कुछ पढाने वाले हैं। मैंने भी सोचा कि चलो उन्हें सुना जाय।
बातें निद्रा के विज्ञान के बारे में थी। मैं अब तक जिन लोगों को पढ़ते सुना है, कभी भी किसीने मुझे मानसिक रूप से इतना नही झकझोरा था।

हम सभी तकरीबन अपनी जीन्दगी का १/३ समय नींद में गुजरते हैं। एक बात तो तय है कि यह बहुत जरूरी है अन्यथा क्यों सदियों से हमने इतना वक्त जाया किया है। मैं अभी एक नवजात शिशुओं के गहन चिकित्सा विभाग में कार्यरत हूँ और बात उठी कि शिशुओं को कितना सोना चाहिए और उसका क्या महत्त्व है।
मैं अब सीधे काम कि बात बताता हूँ।
हमारी नींद दो तरह ki होती है.पहली REM sleep और दूसरी NREM स्लीप। REM स्लीप के दौरान हम सपने देखते हैं और इसका महत्त्व है कि तभी स्मृति का निर्माण होता है। NREM स्लीप शरीर की रोग प्रतिरोधन क्षमता और विकास के लिए जरूरी है। अगर एक बिल्ली के बच्चे को दो दिनों के लिए REM स्लीप से वंचित किया जाय तो वह मर जाता है। अगर एक वयस्क को २-३ दिन तक REM स्लीप से वंचित रखा जाय तो वो पागल हो jataa hai. gvantamo bay aur poori duniya me iska kaideeyon par prayog hota hai.

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

स्वाइन फ्लू

विश्व स्वास्थय संगठन ने पाँचवे पादन (लेवल ५) की गंभीरता, स्वाइन फ्लू के pandemic होने की खतरे के लिए घोषित कर दी है। पाश्चात्य जगत में इस बात को ले कर काफी गहमा गहमी है। भारतीय समाचार तंत्र में इसके लिए उतनी उत्सुकता और महत्त्व नही दीखता है। भारत चुनाव संग्राम और क्रिकेट में व्यस्त है। मगर एक दस्तक हमारे दरवाजे पर हो रही है जिसे हमें नजरअंदाज नही करना चाहिये।
मैं पिछले ६ वर्षों से आंग्ल देश में कार्यरत हूँ। मुझे कभी स्वाश्थ्य की वजह छुट्टी नहीं लेनी पड़ी थी, मगर पिछले वर्ष के उत्तरार्ध में मैं फ्लू (influenza) से पीड़ित हुआ और करीब ५-७ दिनों तक काम पर नही जा सका। फ्लू एक विषाणु(वायरस) जनित रोग है। और आम तौर पर विषाणु जनित संक्रमण (वाइरल इन्फेक्शन्स) उतने गंभीर नही होते और इसके लिए किसी खास इलाज़ की भी जरूरत नहीं होती है। साधारण सर्दी जुकाम इसके उदाहरण हैं।
मैं एक डॉक्टर हूँ और हॉस्पिटल में कार्यरत हूँ। मुझे मालूम था की यह फ्लू है , मगर मैं हैरान था की एक वाइरल इन्फेक्शन मुझे इतना कमजोर और बेबस कर सकता है की मैं काम पर न जा सकूं। यह मौसमी फ्लू था। जो हर साल सर्दियों में ठंडे देशों में (और भारत में भी) आता है। मेरे साथ घर के अन्य सदस्य भी इससे पीड़ित हुए। छोटी लड़की को तेज बुखार, सर्दी, खांसी और उल्टियां हो रही थी। मुझे मालूम था की इलाज़ के नाम पर बस paracitamol देना है, और बच्चे के पोषण और तरल आपूर्ति (fluid intake) का धयान रखना है, अभी कुछ १ सप्ताह में ख़त्म हुआ।
हिदुस्तान में भी अक्सर हम इससे संक्रमित होत हैं और ठीक भी हो जाते हैं। कई बार बच्चों और वयस्कों को antibiotic लेने की भी जरूरत पड़ती है। यह फ्लू वायरस के लिए नही पर इसकी वज़ह से हमारे शरीर जीवाणु (bacteria) से भी संक्रमित हो सकता है और उसके लिए antibiotic कारगर इलाज़ है। कई बार antibiotics अनावश्यक रूप से भी प्रयोग किए जाते हैं।
यह तो मैंने एक रूप रेखा दी थी सामान्य फ्लू की जो हर साल आता है और हमें सताता है। आम बोल चल में आपने सुना होगा- मौसम बदल रहा है और ठण्ड लग गई है, - यही फ्लू है।
वृध्ध लोगों में यह रोग जान लेवा भी हो सकता है। हर साल इंग्लैंड में फ्लू की वजह से हजारों लोगों के मौत होती है मगर ये सभी काफी उम्रदराज होते हैं।
फ्लू के वायरस के लिए कोई सक्षम टीका नहीं बन पाया है, कारण यह विषाणु हर चन सालों में अपना स्वरुप बदल लेता है और फिर टीका बे असर हो जाता है। कभी कभी जब इसके स्वरुप में कोई बड़ा परिवर्तन होता है तो हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति इसे पेहचान नही पाती और यह बिमारी ज्यादा लोगों में औएर ज्यादा गंभीर रूप से फैलती है।
अगर कोई ऐसे बिमारी देश की सीमाओं के पार एक साथ कई देशों में फैल जे तो इस फी pandemic कहते हैं।
आज से ४० साल पहले फ्लू pandemic का प्रकोप हुआ था जब करोंरों लोगों की जान गई थी।
फिर कुछ ऐसा होने वाला है। इस बार यह विषाणु सूअरों और पक्षियों में होने वाले फ्लू का कुछ भेष ले कर आया है इस लिए इसे swine flu kaha jaa raha hai. यह मेक्सिको से शुरू हो कर दुनिया के विभिन्न ब्भागों में फ़ैल रहा है। आपकू याद होगा की कुछ वर्ष पहले बर्ड फ्लू के प्रकोप था , मगर तब बर्ड फ्लू के विषाणु सीरक पक्षियों से मनुष्यों में आ रहे थे, इस लिए सिर्फ़ वो लोग जो पॉल्ट्री में काम करते हैं इसके शिकार हुए थे और पक्षियों में इसके रोकथाम से इसका खतरा ख़त्म हो गया था। मगर swine फ्लू मानव से मानव में फिल रहा है इस लिए इसे रोक पाना मुर्गों के कत्लेआम की तरह आसान नही होगा।
मेक्सिको सिटी दुनिया के चाँद सबसे ज्यादा आबादी वाले शहरों में से है। मगर आज वहाँ के सारे स्कूल कॉलेज और कोई ऐसे जगह जहाँ लोग इकठ्ठे हो सकते हैं पर पाबंदी लगी हुई है। १५० के करीब लोगों कि मौत हो चुकी है और इनमे से ज्यादा तर लोग ४५ से कम उम्र के हैं। अगर यह बिमारी भारत पहुँचती है तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते है क्यों कि हमारी आबादी सघन है और हमारा तंत्र ऐसी महामारी से निबटने के लिए तैयार नही है।
जरूरत है कि आम आदमी इसके बारे में ज्यादा जाने, और यह हमारी मदद कर सकता है।
धन्यवाद.

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

maowaad aur bhaarat me hinsa

मैं माओवादी हिंसा और ऐसे समाचारों को लेखा जोखा रखता रहा हूँ. मैंने अंतरजाल pआर इससे सम्बंधित जानकारियों को भी जमा करने की कोशिश की है. एक बात जो मुझे उभर कर सामने आती दिखाई देती है वोह है मिडिया में इस हिसात्मक कार्यवाही के खिलाफ एक सापेक्ष खामोशी।
अभी रोहतास में नक्सलियों ने BSF के कैंप पर धावा बोला था जिसमे ऐसी रिपोर्ट थी की १०-११ नक्सली अपराधी भी मारे गए हैं मगर यह बात सुच है ऐसा बताने की कोशिश मीडिया में बिल्कुल नही दिखाई देती है। यू-ट्यूब पर नक्सली से सम्बंधित जो भी vidios हैं वो भी ऐसा लगता है की नक्सलिय का एक तंत्र है जो उनकी तरफ्द्दारी और उनके कर्त्तोतों को सही करार देने के लिए सतत प्रयत्नशील है। अरुंधती रोय के विचार इतने पूर्वाग्रह ग्रस्त हैं की कोई शक नही होता की वो सिर्फ़ एक सेंसेशन सनसनीखेज ख़बर बनना चाहती हैं। सभी कहते हैं की नक्सलवाद की वजह व्याप्त गरीबी और असमानता है, यहाँ तक तो ठीक है मगर कोई यह क्यूं नही कहता की इसके नाम पर होता आतंक और हिंसा ग़लत है।
वह कौन है जो इसे हवा दे रहा है?
मैं यह कहना चाहता हूँ की वजह जो भी हो , जो सामाजिक जीवन में हिंसा का प्रतिपादन कर रहे हैं उन्हें रोकना होगा। उनकी शिकायत करनी होगी। मैं सैधांतिक रूप से मानता हूँ kइ सलवा जुडूमसही नही है मगर एकतरफा उसकी शिकायत करना भी निदान नही।
जो साधारण सिपाही मारे जा रहे है वो कोई सामंत नही साधारण आदमी हैं जो मेहनत से गरीबी से नकलने और अपने परिवार को निकलने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें छिप कर धोखे से मारना न तो कोई बहादुरी है न ही कोई क्रांति यह निरा आतंकवाद है अपराध है और किसी भी सभ्य समाज की जरूरत है की इसे समूल नष्ट किया जाय।
उनके रॉकेट लौंचेर और गोली बारूद का पैसा कहाँ से आता है? कोई इन अपराधियों के द्बारा होते मानव अधिकारों के हनन की बात क्यो नही करता? क्या इन माओवादियों के आका हमारे पत्रकारों और बुध्धिजीविओं को खरीद चुके है?

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

help please

can some one help me to be able to write my blog in devnaagri.
dhanyavaad