मानव तन असंख्य कोशिकाओं से बना है। हर कोशिका अपने आप में एक जीवित इकाई है। यह शरीर अनगिणत सूक्ष्म शरीर (कोशिकाओं) का मानो एक सुव्यवस्थित समाज है। हर कोशिका अपना काम निरंतर करती रहती है, बगैर इस शरीर के बोध के।
यह शरीर चेतन है, यह चेतना हमें "अहं" का बोध देती है। मगर इस "अहं" का बोध इस शरीर को बनाने वाली किसी भी कोशिका को तो नहीं होता। कोशिकाएँ निजी स्तर पर चेतन नहीं होती हैं। कोशिकाएँ, जिनका अस्तित्व भौतिक स्तर पर एक निश्चित सत्य है इस "अहं" से अनभिज्ञ होती हैं। तो जिसे मैं "मैं" जानता हूँ, क्या वह सत्य नहीं है। नहीं, मुझे मलूम है कि "मैं" हूँ।
इसी तरह यह जगत अनेक चेतन एवं अवचेतन इकाईयाँ का एक सुव्यवस्थित समाज है। मनुष्य उनमें से एक है। और ईश्वर इस जगत का अतिचेतन स्वरूप है। और हम उसके अस्तित्व से वैसे ही अनभिज्ञ जैसे कोशिका हमारे अस्तित्व से।
यह शरीर चेतन है, यह चेतना हमें "अहं" का बोध देती है। मगर इस "अहं" का बोध इस शरीर को बनाने वाली किसी भी कोशिका को तो नहीं होता। कोशिकाएँ निजी स्तर पर चेतन नहीं होती हैं। कोशिकाएँ, जिनका अस्तित्व भौतिक स्तर पर एक निश्चित सत्य है इस "अहं" से अनभिज्ञ होती हैं। तो जिसे मैं "मैं" जानता हूँ, क्या वह सत्य नहीं है। नहीं, मुझे मलूम है कि "मैं" हूँ।
इसी तरह यह जगत अनेक चेतन एवं अवचेतन इकाईयाँ का एक सुव्यवस्थित समाज है। मनुष्य उनमें से एक है। और ईश्वर इस जगत का अतिचेतन स्वरूप है। और हम उसके अस्तित्व से वैसे ही अनभिज्ञ जैसे कोशिका हमारे अस्तित्व से।
your post is very interesting to read. I never stop myself to say something about it. Thanks for providing such nice information to us. here visit my site wii
जवाब देंहटाएं