शनिवार, 6 अप्रैल 2019

चुनाव का मौसम: मोदी को पुनः  क्यों नहीं चुने?

भारत में चुनाव की सरगर्मी है। मोदी की भाजपा और राहुल के नेतृत्व वाले  महागठबंधन के बीच मुकाबला है । कुछ और छोटी पार्टिया हैं जो स्थानीय स्तर पर मुकाबले में हैं ।
भाजपा के समर्थक उन्हें मोदी के सक्षम नेतृत्व, पिछले ५ वर्षों में किये गए विकास कार्य और भारतीय/ हिन्दू संस्कृति के संरक्षक के रूप में अपना समर्थन देना चाहते हैं ।
समाज का एक पक्ष है जो मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा के विरोध में खड़े हैं। मगर ये  मोदी के विरोध में क्यों है यह पूरी तरह से साफ़ नहीं है ।
एक बात तो है की जो गैर हिन्दू धर्मावलम्बी हैं उनमे भाजपा के प्रति एक पुराना  विरोध है और वह और भी गहरा हुआ है. मगर मैं यहाँ धर्मनिरपेक्ष रूप से समझना चाहता हूँ की हमें मोदी के नेतृत्व को क्यों नकारना चाहिए.
इस विरोध के कई स्तर हैं। मैं उनकी जाँच करने की कोशिश कर रहा हूँ ।

नमो एक नेता के रूप में:

मोदी एक विनम्र नेता के रूप में नहीं दीखते हैं , इनका स्वाभाव कठोर दीखता है। कई बार ये घमंडी और गौरवोन्मत्त लगते हैं। पार्टी के अंदर इनकी छवि एक कठोर वयक्ति के रूप में  है जो विरोध के प्रति बहुत कठोर व्यवहार कर सकता है। आडवाणी जी के प्रति इनका व्यवहार रूखा और कठोर रहा है. पार्टी के अंदर किसी भी विरोध के स्वर को किनारे कर दिया गया है. विपक्षी नेताओं के साथ भी इनका व्यव्हार रूखा ही रहा है. इस सन्दर्भ में अटल जी की याद आती है  उनका वक्तित्व मोदी से बहुत ही अलग था, पर अगर इंदिरा गाँधी के बारे में जितना जानता हूँ तो लगता है वो कुछ हद तक ऐसी ही थी. 
 
मोदी मुझे ज्ञानवान और  बहुत पढ़े लिखे नहीं लगते हैं।  कई बार उनके भाषणों में तथ्यात्मक त्रुटियां भी होती हैं. और कई बार ज्यादा ही नाटकीय लगते हैं जैसे की दुसरे देश के नेताओं  से गले मिलना या  पड़  जाना, कैमरा के आकर्षण का केंद्र बने  रहने की  चेष्टा करना आदि. मगर एक गैर हिंदी भाषी हो कर भी जिस तरह से उन्होंने हिंदी में देश के लोगों से संवाद किया है वो मुझे अच्छा लगता है. मगर आज के सन्दर्भ में कोई भी नेता  पहले के कई नेताओं की तरह ज्ञान संपन्न नहीं लगते है. मुझे लगत है की गाँधी जी, नेहरू जी, राजेंद्र बाबू , जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया आदि का बौद्धिक स्तर अलग ही था. मनमोहन सिंह जी भी बहुतही ज्ञानी थे. इंदिरा गाँधी का ज्ञान भी उथला ही था, मगर अभी के जो बाकी नेता हैं जैसे की राहुल, अखिलेश, मायवती, चंद्र बाबू ,  ममता, तेजस्वी, कुमारस्वामी आदि तो फिर मुझे इस मामले में और भी निराशा होती है.  
 
मिडिया के साथ भी इनका सम्बन्ध थोड़ा अलग ही रहा है. या तो बस अपने मन की बात कहते हैं या फिर सिर्फ अर्नब गोस्वामी जैसे पत्रकार से बाते करते हैं जो की साफ़ लगता है कि staged है. उन्हें खुल कर पत्रकार सम्मलेन में भाग लेना चाहिए जिससे की लोगों को मुश्किल मामले में उनकी क्या राय  है के बारे में पता चले. मगर सच कहूँ तो मुख्य प्रतिद्वंदी राहुल जी के बारे में भी   ये बात लागू  होती है। 
 
विकास कार्य:
 
पिछले ५ वर्षों में कई बड़े निर्णय लिए गए हैं।  अपेक्षित विकास शायद नहीं हुआ है. गरीबी अभी भी है, लोग बेरोजगार हैं, समाज में असमानता नहीं घटी  है. कला धन वापस आया हो ऐसा नहीं कह सकते हैं. मगर पिछली  सरकार ने या विकल्प सरकार से भी कुछ ज्यादा उम्मीद करना सही नहीं लगता है. कांग्रेस सरकार का  मनरेगा कार्यक्रम एक अच्चा कदम था. और इसे और मजबूत किया जाना चाहिए। कांग्रेस की ७२००० से बेहतर होगा कि  मनरेगा जैसे कार्यक्रम को बढ़ाया जाय. ७२००० का प्रस्ताव एक नए तरह के आरक्षण जैसा मुद्दा बन जायेगा जिस पर कोई सार्थक बहस मुश्किल होगी और किसी भी सरकार के लिए उसे कमतर करना असंभव जैसा होगा. मुझे नहीं लगता है की विकास कार्य में अपेक्षित प्रगति नहीं होने की वजह से मैं मोदी का विरोध करूंगा. 
 
भ्रष्टाचार : राफेल का मुद्दा हवा में है, शंका है पर पता है. माल्या और नीरव जैसे लोगों ने देश को आर्थिक रूप से धोखा दिया है. मगर भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा नही बन पायेगा ऐसा लगता है , क्योंकि तुलना के लिए है UPA २,
राजद , सजपा और मायावती।

विदेश नीति: पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध बिगड़े ही हैं , सुषमा स्वराज ने विदेश मंत्रालय को आम लोगों से जोड़ा है जो की एक अच्छी पहल रही है. मैं चाहूंगा की एक ऐसी सरकार बने जो पाकिस्तान और अन्य पड़ोसियों के साथ सम्बन्ध अच्छे कर सके. नेपाल का भी मुद्दा है.

न्यायपूर्ण और समन्वयवादी व्यवस्था : यह एक ऐसा मुद्दा है जहाँ मुझे वर्तमान सररकार से मुख्य शिकायत है.  गुजरात दंगो से ही मोदी की छवि धूमिल थी. पिछले पांच वर्षों में कुछ घटनाएं ऐसी हुईं हैं जो किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मिंदगी और बेचैन कर देने वाली हैं. उप्र  में किसी व्यक्ति की हत्या इस लिए कर दी जाती है कि लोगों को उसके गौ मांस खाने का शक था. इस व्यक्ति का पुत्र वायु सेना के लिए काम करता है. अब तक क्या किसी को इसके लिए सजा मिली है मुझे नहीं मालूम. यह घटना कुछ हद तक निर्भया केस के जैसा है।  पुनः ऐसे और वारदात होते हैं जहाँ ऐसे ही कारणों के लिए भीड़ या कुछ लोग अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्या कर देते हैं. यह सरकार से ज्यादा हमारे समाज के व्यघटित होते मूल्यों का परिचायक है मगर मोदी सरकार उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी. उसे इसके विरोध में और सख्त व् मुखर होना चाहिए था. मोदी वैसे तो आरती करते हैं , त्रिपुण्ड  लगा कर भाषण देते मगर कोई इस्लामिक पहनावे से परहेज करते हैं. मुझे यह सही नहीं लगता है. या तो वो अपने धार्मिक विश्वास का सार्वजनिक प्रदर्शन न करें  इस फिर हर धर्म के प्रति एक जैसा सम्मान दिखाएँ. अगर कोई शासन    व्यवस्था ऐसी हो जाती है जहाँ समाज का कोई हिस्सा अपने को दोयम दर्जे का नागरिक महशूश करने लगे तो यह राष्ट्र के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं.
कश्मीर के आम नागरिक को भारत से जोड़ने के प्रयास में भी सरकार विफल लगती है. विपक्ष भी कोई बड़ी उम्मीद नहीं जगाता है. मगर मोदी की हार लिंचिंग भीड़ को हतोत्साहित करेगी और देश से कट रहे लोगों में ऐसा सन्देश  आएगा कि  समाज अब भी धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के बारे में सजग है.

समस्या यह है की विपक्ष खुल कर इस मुद्दे पर जनता के पास नहीं जा रही  है. वो अन्य बातें  कहती है जो की असली मुद्दा नहीं है.
असली बात यह है की चुकि  इस सरकार ने अल्पसंख्यकों में सुरक्षा और विश्वास का भाव भरने में असफल रही है इस लिए हम इसका विरोध करते हैं. बहुसंख्यक के हितों की रक्षा की जानी  चाहिए मगर अल्पसंख्यकों को असुरक्षित  कर नहीं.

कई बहुसंख्यक ऐसा मा न ने  लगे थे कि उनकी अनदेखी की जा रही है र उनके जीवन शैली और संस्कृति पर लगातार हमले हो रहे हैं , यह स्थिति भी बदलनी चाहिए. भाजपा के जीत का यह प्रमुख कारण  रहा है और विपक्ष दल को इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिये.

कितना भी आर्थिक विकास हो और आर्थिक भ्रष्टाचार में कमी हो मगर इसकी कीमत सामाजिक तानेबाने को कमजोर करना है तो ह बहुत बड़ी कीमत है और हिंदुस्तान कुछ और दिन गरीबी सह सकता है भ्रष्ट नेताओं को झेल सकता है.


 

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