रविवार, 2 जून 2013

आधुनिक मानव

आधुनिकता को परिभाषित कर पाना सरल नहीं है।  आम तौर पर पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण आधुनिकता का पर्याय माना   जाता है। अगर मैं अपने मन में  गहरे  उतर कर इस सवाल का जवाब ढूँढने की कोशिश् करूँ  तो एक बात जो उभर कर सामने आती है वो है कि  मनुष्य जो पूर्वाग्रहों से मुक्त है वही आधुनिक है।

देश, धर्म, जाति, लिंग आदि से जुड़े जो पूर्वाग्रह हैं उनसे मुक्त होना आधुनिक होने की पहली आवश्यकता होगी . मेरे विचार में आधुनिक मानव को एक बेहतर और सफल मानव भी होना ज़रूरी है।  तो इस से यह निष्कर्ष निकाला  जा सकता है कि पूर्वाग्रहों से मुक्ति हमें बेहतर और सफल बनाती है।

कहीं न कहीं यह भी अवधारणा बन गई है कि आधुनिक मनुष्य उपभोक्तावादी होता है. जो उपभोग के  नए  नए  वस्तुओं को अपने जीवन में आत्मसात कर रहा हो वही आधुनिक है. मैं इससे सहमत नहीं हो सकता कि उपभोगवादी होना आधुनिक होने की पहचान है । मगर यह भी मनाता हूँ की ऐसी अवधारणा बन जाने के पीछे वजह यह रही होगी कि उपभोगी होना परोक्ष रूप से मनुष्य के आर्थिक रूप से सफल होने का प्रमाण है और हम मानते हैं की आधुनिक मनुष्य सफल मनुष्य है- आर्थिक तौर पर भी।

अब लग रहा है कि बात आगे निकल कर महज आधुनिक होने की जगह सफल मनुष्य होने की होती जा रही है। तो अगर ऐसा सोचें कि  "आधुनिक सफल मानव कौन है?" इसकी क्या पहचान है? पूर्वाग्रहों से मुक्त होना निश्चय ही एक आयाम हो सकता है. इसके अलावा जो जिन्दगी सही तरीके से जीना जानता हो और नए उद्भाषित तथ्यों को स्वीकार कर लेने में सक्रीय और सक्षम हो।

महर्षि अरविन्द ने अतिमानव की कल्पना की थी। अतिमानव - ही आधुनिक मानव होगा. तो फिर यहाँ बात मन और आध्यात्म की उठेगी . मगर आधुनिक मानव किसी भी बात जो सत्य प्रमाणित नहीं है उसमे यकीन नहीं कर सकता . ध्यान और मानसिक अवस्थाएं, मानसिक बल और कमजोरियां कोई काल्पनिक बातें नहीं बल्कि यथार्थ है। आधुनिक मानव वही है जो मानसिक रूप से स्वस्थ और शक्तिमान है.

आधुनिक मानव जाति सतत वर्धमान है. वह साहसी है और विजयी है. वह जो बृहत् सत्य को समझता है जिसकी दृष्टि दूर अक देख सकती है और वह सिर्फ स्वयं ही नहीं बल्कि समष्टि के कल्याण के लिए कर्मरत है और सफल भी .

 

रविवार, 12 मई 2013

गर्म होती धरती

 
इस सप्ताह  एक खास खबर है की वातावरण में  co 2 की मात्रा 4 0 0  p p m  को पार कर चुका  है. ऐसा पहले ३०  लाख वर्ष पूर्व हुआ था जब आदमी का अस्तित्व भी नहीं था। काफी समय से वैज्ञानिक हमें सावधान करते आयें हैं कि  वातावरण में कार्बन  डाइऑक्साइड  की मात्र बढती जा रही है मगर विडंबना यह है कि इसके बढ़ने की दर पिछले ३ दशक में और ३ गुना हो गई है. कोई शक नहीं है कि  कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ता है. आज से पहले जब  ये हालत थे तो समुद्र का तल ४० मीटर ऊपर था।

धरती के बढ़ते तापमान का असर व्यापक होगा। रेगिस्तान फैलेगा, मौसम उलटे पुल्टे होंगे , समय पर बारिश नहीं होगी और बाढ या सूखे की स्थिति बनी होगी। बड़े स्तर पर मानवों का पलायन होगा। इससे युद्ध और कल्हकी स्थिति उत्पन्न होगी।

हालात है कि मरीज़ को मालूम है  कि स्थिति बिगड़ रही है मगर परहेज़ फिर भी नहीं कर रहा। हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत  में सर छुपाए हैं . बस सोचते हैं कि  हमारे जीवन काल में तो ऐसा नहीं होगा. मगर हमारे बच्चों का क्या होगा.?

मुझे तो लगता   है कि  हमारे जीवन काल में ही व्यापक असर दीखने को मिलेन्गे .

इस रस्ते में सबसे बड़ी रुकावट देश की परिकल्पना है. हम एक धरती औए उसके लोग की तरह न सोच कर अपने अपने देश की सोचते है

अगर धरती को बचाना ही तो देशों को मरना होगा. जब सवाल ऐसे गंभीर हों तो देशो का मुद्दा हास्यास्पद लगने लगता है कि  लद्दाख में तम्बू किसने लगाये हैं .

गुरुवार, 14 मार्च 2013

अपनी भाषा के लिए आवाज़

हमारी सरकार  ने लोक सेवा आयोग की परीक्षा से हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा की अनिवार्यता को ख़त्म कर अंग्रेजी को न सिर्फ अनिवार्य करने का फैसला किया है बल्कि अंग्रेजी का ज्ञान चयन में निर्णायक होगा।

आयें हम इस पर विचारें और अगर सही लगे तो जहाँ संभव हो विरोध दर्ज करें .

लिंक है जनसत्त पर मृणालिनी शर्मा जी का लिखा एक लेख.
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/40665-2013-03-12-06-31-52
 

सोमवार, 7 जनवरी 2013

मो-बोला-जी : जो जन्म से ही संपन्न हो

  ईसाईयों का एक सम्प्रदाय है "येहोवा विटनेस". भारत में रहते हुए मैं इससे परिचित न था। मैंने गोवा में करीब 9 वर्ष बिताये थे और  वहां की संस्कृति व् ईसाइयत को करीब से जाना था मगर  इसका पता न था।

मोबोलाजी जिन्हें लोग आसानी  के लिए "बीजे" बुलाते हैं, इस सम्प्रदाय को मानने वाले हैं और इत्तिफाक से  गुजरे गर्मी के मौसम में उनसे मुलाकात हुई। तब से ही हम लगातार मिलते रहे हैं।और मैं बाइबिल के बारे में बहुत कुछ सीख व् जान रहा हूँ।

मोबोलाजी का जन्म नाइजीरिया में हुआ था और पिछले 7 वर्षों से ब्रिटेन में रह रहे हैं। वो 6 फीट के लम्बे और बेहद शालीन इंसान  हैं।

 हम बात कर रहे थे soul एवं spirit की। इनका धर्म, आत्मा के अस्तित्व में वैसा विश्वास नहीं रखता जैसा की अधिकतर भारतीयों का है।  फिर  ये तो मानते हैं कि शरीर से पृथक Spirit है , और इसके बिना शरीर जीवन हीन है। मगर यह स्पिरिट वैसे ही है जैसे कि रेडियो में बिजली। बिजली के बिना रेडियो मृत है मगर जो बिजली इस चलाती है , उसका रेडियो से कोई निजी रिश्ता नहीं है।

खैर अंत में बात चल पड़ी कि बीजे आपका असल नाम क्या है? और मैंने जाना कि उनका नाम मोबोलाजी है जो की नाइजीरिया की एक भाषा येरोबा का शब्द है। और इसका  है जिसका जन्म  सम्पन्नता के साथ हुआ हो।

इनकी  धर्मपत्नी भी वैसे तो नाइजीरिया  की हैं मगर उनकी मातृभाषा अलग  है उरुबो । वो  आपस में अंगरेजी में ही बात  हैं। बच्चों के नाम नाइजीरियाई भाषा के न हो कर सामान्य अन्ग्रेजी  नाम हैं। और उन्हें येरोबा भाषा का ज्ञान न के  बराबर है।  नाइजीरिया भाषा की दृष्टि से भारत की की तरह विभिन्नता से भरा है। यह देश अफ्रीका के पश्चिम तट पर तेल संपदा से संपन्न देश है।
 
हमारे बच्चों का हिंदी ज्ञान भी बेहद काम चलाऊ ही  जा सकता है।

लुप्त होती प्रजातियों की तरह कई संस्कृतियाँ भी तेजी से लुप्त होती जा रहीं हैं। भाषा संस्कृति की spirit  है। किसी भी संस्कृति से अगर उसकी भाषा छीन ली जाय तो वह संस्कृति वैसे ही धूल में मिल जायगी जैसे की प्राण के बिना शरीर।

हमारी बात इस बात के साथ ख़त्म हो गई। भारतीय भाषा के बिना भारतीय संस्कृति निष्प्राण हो  जायगी।






 

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

नई रोशनी


एक लम्बे समय से मैं ने ब्लॉग पर कुछ लिखा नहीं है। पिछले एक साल में काफी कुछ बदला भी है।
मेरे लिए यही  बड़ी बात  होगी  कि  मैं इस लम्बे रुके हुए क्रम को तोड़ सकूँ।और यह ब्लॉग बस इसी का प्रयास है।

ख़बरों में दिल्ली में हुई दुखद दर्दनाक घटना की गूँज हर कहीं है। अलग अलग लोग अलग अलग विचार रखते रहे हैं।Guardian इंग्लैंड का एक प्रतिष्ठित  अखबार है और इसमें यहाँ के लोगों ने भी इस समाचार के उपर विस्तार से लिखा है। भारत और इसके समाज व् संस्कृति की खूब शिकायत लिखी गई है। यह खबर ही ऐसी है कि शिकायत तो होनी ही चाहिए। कई बार जब कोई दूसरा आइना दिखाए तो हकीकत और सफाई से दिखाई देता है। और मन को चोट भी गहरी लगती है।

मैंने अपनी पहचान खोता जा रहा हूँ , और मैं कहीं किसी से जुड़ा नहीं समझा जा सकता भले ही मेरे मन की हालत कुछ और हो। सच यह है की यहाँ के अखबारों में जो लिखा था उससे बहुत बुरा लगा और अपने मन की बात कहीं तो कह सकूं इस लिए आपके पास लौट आया।

खैर नया साल नई रौशनी लाये हम सबों के लिए।