सोमवार, 27 सितंबर 2010

शैतान की परिकल्पना


madhya -पूर्व से शुरू हुए धर्मों में एक समानता "शैतान" की परिकल्पना है. इसे इंग्लिस में "SATAN the DEVIL" कहते हैं. इस्लाम में भी शैतान की कल्पना है. ओल्ड टेस्टामेंट बाइबिल का वह हिस्सा है जो ईसा मसीह के पूर्व लिखा गया था और इसमें कम और ज्यादा , यहूदी, इसाई और मुसलमान सभी यकीन करते हैं. ओल्ड टेस्टामेंट में शैतान का जिक्र इसके प्रथम अध्य्याय में ही है.भारतीय महाद्वीप से शुरू हुए धर्मों (हिन्दू, बौध, जैन, सिख) में इसके सामानांतर क्या है मैं सही सही ढूंढ नहीं पाता हूँ. अभी हाल में मुझे बाइबिल के अध्ययन का सुअवसर मिला है. और मैंने समझाने की कोशिश की कि सांस्कृतिक नहीं वरन धर्म के तत्त्वों (theology ) के आधार पर क्या फर्क है जो धर्मों के इन दो समुदाय को अलग अलग रखता है. और मुझ यह शैतान कि परिकल्पना एक मौलिक फर्क लगता है.Bible कहत है कि इश्वर ने धरती और मनुष्यों को बनाने के पहले angles (देवदूत) बनाये थे. इनमे से एक शक्तिशाली देवदूत शैतान था जो ईश्वर कि सर्वोपरि सत्ता को चुनौती देता है और विद्रोही हो जाता है. यह शैतान प्रथम मानव -युग्म आदम औए eve (हौआ) को पथभ्रष्ट करता है और उन्हें ईश्वर के दिए आदेश का उलंघन करने को प्रेरित करता है. आदम और इव ज्ञान के वृक्ष का फल खा कर ईश्वर के आदेश को भंग करते हैं और परिणामतः स्वर्ग - गार्डेन ऑफ़ एडेन से बहार निकले जाते हैं. मध्य पुर्व के धर्म मानते हैं कि ईश्वरीय शक्ति और शैतानी शक्ति कि लड़ाई अब भी चल रही है. शैतान अब भी मानव जाती को अलग अलग तरीके से बरगला रहा है और इतर धर्मों का अस्तित्व इसी का परिणाम है. यह मान्यता; मूल कारण है कि मध्य-पूर्व से उपजे धर्म इतर धर्म के लोगों को पथभ्रष्ट मानते हैं और चाहते हैं कि ये भटके हुए लोग भी "सत्य" को जाने और सच्चे धर्म को अपना लें. एक दिन ऐसा आयेगा जब इश्वर और शैतान कि यह लड़ाई ख़त्म हो जायगी, और निश्चय ही ईश्वर शैतान को नष्ट कर देंगे और साथ ही साथ उन सबको जो उसके साथ हैं (? शायद सभी वो जो सच्चे धर्म में नहीं हैं).तो मूलतः एक युद्ध है ईश्वर और सैतान के बीच और मनुष्य इसमें मोहरे हैं, जिसे समझना है और साथ देना है दोनों में से एक का. वो सारी चीजें जो हमें इश्वर से अलग करती है और उनसे दूर करती है वह शैतानी शक्ति कि चाल है.भारतीय धर्मों में ऐसी कल्पना नही है. पुराणों में राक्षस, असुर और दैत्यों का जिक्र है मगर वो ईश्वर से नहीं बल्कि देवताओं से लड़ रहे हैं. और सच कहें तो हम ऐसी किसी शक्ति में विश्वास नहीं करते जो ईश्वर से लड़ रह हो या लड़ सकता हो.भारतीय धर्मों में माया कि कल्पना है जो कि ईश्वरीय शक्ति ही है मगर वह मानवों को उलझा सकती है और जीव को ईश्वर से मिल सकने से रोकती है. बाइबिल मानता है कि सांसारिक ऐश्वर्या शैतान के अधिकार में है और शैतान इसका उपयोग मानव को ईश्वर से दूर करने में करता है. माया भी ऐसी शक्ति है मगर हिन्दू मानते हैं कि यह ईश्वर कि लीला है, शत्रु नहीं. हिन्दू मान्यता है कि माया ऐसी ईश्वरीय शक्ति है जो इस दुनिया को चलाती है. मानवीय जीवन माया के बिना संभव नहीं, क्योंकि माया के बिना माता पिता का संयोग नहीं हो सकता और फिर श्रृष्टि का क्रम ख़त्म हो जायगा. मगर जब हम मानव जीवन में आते हैं तो हमें एक अवसर मिलता है कि हम माया को जान सकें और इससे मुक्त हो कर कैवल्य या निर्वाण को प्राप्त हो सकें. परिणामतः मध्य पूर्व के धर्म में मनुष्यों को सतत एक लड़ाई लड़नी होती है एक जिहाद होता है शैतानी शक्ति और प्रभावों के विरुद्ध जबकि भारतीय धर्मावलम्बियों के लिए यह लड़ाई नहीं है, बल्कि realization है. माया हमारी या ईश्वर की शत्रु नहीं बल्कि एक प्राकृतिक शक्ति है और हमें इसका अवसर है कि हम इसमें संलिप्त हों या इसे छोड़ कर वृहत सत्य का साक्षत्कार करें.मैंने जब लिखना शुरू किया था तो उद्देश्य था कि निरपेक्ष भाव से तुलना कर सकूं और बातों को समझ सकूं. मगर अब लगता है कि शायद मैंने भारतीय धर्म के पक्ष में लिखा है. कारण है कि इस पोस्ट का उद्देश्य किसी धर्म को ऊपर या नीचे दिखाना नही है बल्कि अपनी आस्था के आधार को निश्चित करना है.मेरा ज्ञान अधूरा और कम है, अगर मेरी बातें सही न लगे और मन को दुःख पहुंचाए तो मैं क्षमा चाहूँगा.

शनिवार, 25 सितंबर 2010

५००० साल पुराणी मूर्ती.


यह ब्रिटिश नेशनल museum में रखी मिश्र से लायी एक मूर्ती है। यह ५००० साल पुराणी है, सिन्धु घाटी कि सभ्यता के समकालीन। मगर इस काल कि मिली भारतीय कलाकृति बहुत छोटी और कला कि द्दृष्टि से पिछड़ई लगती है।
इन को देख कर लगता है कि क्यों प्राचीन सभ्यताओं के वैभव में मिश्र का कोई सानी नहीं है.

कश्मीर

हमें बहुत बाद में पता चला था कि हिदुस्तान का जो नक्शा हम देखते और बनाते आये थे वो सच
नहीं था। नक़्शे में भारत की तस्वीर एक मानवीय मूरत लगती थी, और जान कर बेहद मायूसी हुई थी कि इस मूरत का सर कटा है या सर का मुकुट किसी और ने ले रखा है?
खैर, ISc करने जब हम सायंस कॉलेज में थे तो कश्मीर की ख़बरें हवा में उड़ने लगीं थीं। मुझे धुंधली सी याद है एक दिन कश्मीर से विस्थापित हिन्दू पंडित सम्माज के कुछ सदस्य कॉलेज के छात्रों से मिलने को आये थे। उन्होंने अपनी कहानी सुनायी थी जो मुझे याद नहीं; मगर याद है हैरानी और गुस्से का एक भाव जो मन को मथने लगा था। मुफ्ती सईद की बेटी का अपहरण हुआ था और कुछ लोगों को छोड़ा गया था। इंदिरा गाँधी ke समय में मकबूल बट को न छोड़े जाने पर राजनयिक lalit माकन की हत्या हुई थी और तत्पश्चात मकबूल ko फांसी। मालूम नहीं सरकार इस बार क्यों दिग गयी थी। फिर अखबार के पन्नों से आतंकवादी शब्द की जगह हलाकू का प्रयोग शुरू हो गया था जिसका मतलब क्या था मुझे अब भी मालूम नहीं।
कश्मीर की आजादी की मांग मुझे समझ में नहीं आती थी और अब भी नहीं समझ पाता हूँ। वो कौन है जो कश्मीर को गुलाम बनाये है ? और हम सबको उसके विरुद्ध खड़ा होना चाहिए, जैसे हम अंग्रेजों के विरुद्ध मिल कर खड़े हुए थे। फिर पता चला की वो तो मानते हैं की हमने / भारत ने ही उन्हें गुलाम बना रखा है। यह कैसे हो सकता है? वहां लोकतंत्र है वो अपनी सरकार चुनते हैं और चलते हैं, फिर गुलामी कैसी?

खैर सोचने के बाद मैं ये सोच कर आश्वस्त रहता था कि हमें कश्मीर कि चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि शेष भारत में रहने वाले मुस्लिम और उनके नेता लोग ये सुनिश्चित करेंगे कि धर्म के आधार पर देश फिर से विभाजित नहीं हो सकता क्योंकि पाकिस्तान बनने के बाद भी इस देश के लोगों ने इसके सैधांतिक आधार को नकारते हुए साथ में रहते रहे हैं। अगर कश्मीर इस लिए अलग हुआ क्योंकि वहाँ की मुस्लिम बहुल जनता सेकुलर भारत के साथ नहीं रह सकती तो क्या फिर बचा हुआ भारत सेकुलर रहने की ताकत और हिम्मत रख पायेगा?

आज मैं उतना आश्वश्त नहीं हूँ। मानवीय अधिकार वर्तमान जगत में सबसे प्रभावी मूल मंत्र है। कल बीबीसी की UK की राष्ट्रीय खबर में "भारत प्रशाषित कश्मीर के उथल पुथल की खबर प्रमुखता से आयी थी। और मुझे लगता भी है की अगर वहां के लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते तो उन्हें क्यों जबरदस्ती रखा जाय?
अब भारतीय लोगों में, मीडिया में और सरकार में कश्मीर के प्रति प्रतिबद्धता में कमी दीखती है।
कुछ दिनों पहले सुरेश चिपलूनकर जी ने नवभारत के रिपोर्ट के विषय में लिखा था, अगर वह सच था तो स्थिति चिंता जनक है।
अभी सर्वदलीय दल कश्मीर गया था। अलगाववादियों से किसीने यह क्यों नहीं पूछा की उन्हें भारत से अलग क्यों होना है? ओमर अब्दुल्ला की सरकार उनकी सरकार है तो फिर उन्हें आजादी किस से चाहिए?

क्या यह बात कहना सही होगा की कश्मीर के लिए अगर जनमत होना है तो तो सिर्क कश्मीर के ही नहीं बल्कि पूरे देश के मुसलमानों को मत का अधिकार होना चाहिए। क्योंकि इस जनमत के stakeholder वो भी हैं.

शायद समय के साथ सब ठीक हो जायेगा?

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

डेंगू विषाणु जनित रोग है। अतः इसके उपचार में antibotics क़ी कोई भूमिका नहीं है।
डेंगू मच्छड़ के काटने से होता है। इन मच्छड़ को Aedes egypti कहते हैं ये दिन में काटने वाले मच्छड़ होते हैं। आम तौर पर ये आस पास जमे पानी में पैदा होते हैं। मच्छड़ के काटने के ७-१२ दिनों बाद बिमारी के लक्ष्ण दीखने लगते हैं।
डेंगू संक्रमण से जो लक्षण या बिमारी मरीज़ में होती है वह विभिन्न रूप क़ी हो सकती है। और इसलिए अलग अलग लोगों में यह बिमारी अलग रूप में दिखेगी। निम्नाकित तरह क़ी डेंगू हो सकती है-
  1. सामान्य वाइरल बीमारी - इसमें २-3 दिनों का सामान्य बुखार और बदन दर्द होता hai। कई बार तो डेंगू होने का शक भी नहीं होता। paracetamol ( crocin, calpol ) क़ी १-२ खुराक काफी है।
  2. डेगू बुखार - तेज बुखार २ से ७ दिनों तक। साथ में तेज बदन,, सर दर्द , आँखों के पीछे दर्द, जोड़ों का दर्द। कई बार त्वच पर दाने भी आ सकते हैं। इसमें भी कुछ ख़ास नहीं कर सकते - आराम, paracetamol, और पर्याप्त तरल आपूर्ति ही इलाज का आधार है। paracetamol का सही dose है वयस्क ke लिए ५०० मिलीग्राम -१ ग्राम हर 6 घंटे पर aur बच्चों के लिए १५ मिलीग्राम प्रति किलोग्राम वजन ke लिए हर ६ घंटे पर। कई बार इस बुखार के दौरान नाक, मसूड़ों से खों भी आ सकता है।
  3. Dengue hemorrhagic fever (DHF) : अब मामला गंभीर हो रहा है। यह बुखार के शुरू होने के ५-७ दिनों बाद शुरू होता है। शरीर के अन्दर डेगू विषाणु के विरुद्ध antibodies बनते hai जो हमारे रक्त नलिकाओं से प्रतिक्रिया कर उन्हें ऐसा कर देते हैं क़ी उनसे प्लाज्मा (रक्त का तरल पदार्थ) का स्राव हमारे शरीर कe ही अन्दर होने लगता है. फलतः रक्तचाप (BP) में गिरावट आने लगती है। ऐसी हालत में मरीज़ को भर्ती होना चाहिए और इलाज है पानी चढ़ाना ( IV fluids)
  4. डेंगू shock syndrome (DSS) : यह DHH का ही बढ़ा हुआ रूप है । डेगू से जो भी मौत होती है वह इसी के वज़ह से होती है। जो मरीज इस हालत में पहुँचते हैं उनका इलाज़ कठिन होता है, मगर अच्छी Intensive केयर सुविधा होने से इन्हें बचाया जा सकता है।

तो आप समझ सकते हैं क़ी अधिकतर लोगों को डेंगू का संक्रमण कुच्छ ख़ास नुक्सान नहीं पहुंचता है मगर दुर्भाग्यवश कुछ लोगों में समस्या गंभीर हो सकती है। बहुत ज़रूरी है क़ी हम उन गंभीर मरीजों को जल्दी पहचान सकें और उनका समय रहते इलाज शुरू हो सके। इसके लिए आम जानता में भी जागरूकता होनी चाहिए। कई बार शायद आपको ही स्वस्थ्य कर्मचारी से कहना पर सकता है क़ी क्या यह डेंगू है।

रक्त जांच: Full blood काउंट में हिमोग्लोबिन बाधा हो सकता है और प्लेटलेट कम ho सकता hai। हिमोग्लोबिन का ज्यादा होना और प्लेटलेट का कम होना DHH क़ी पहली निशानी हो सकती है।

यह था एक बेहद संक्षिप्त विवरण।

मूल बातें है:

  • दिन में काटने वाले मच्छड़ों से बचें। आस पास पानी न जमा होने दें।
  • डेंगू क़ी बिमारी मूलतः बारिश के बाद अगस्त -नवम्बर में फैलती है।
  • साधारण डेंगू के लिए आराम, paracetamol, और तरल आपूर्ति से जयादा कुछ नहीं चाहिए।
  • अगर ४-५ दिनों में मरीज़ क़ी हालत नहीं अच्छी हो रही है तो सावधान। डॉक्टर से मिलें और बताएं क़ी आपको डेंगू का शक है।

आशा है ये जानकारी कुछ काम क़ी होगी।

धन्यवाद .

डेन्गु बुखार

इसमें कोई शक नहीं कि आपमें से हर किसी ने डेंगू के बारे में सुन रखा होगा।


डेंगू से मौत कि खबर सुनी होगी।


मगर क्या कोई सवाल उठा है आपके मन में जिसका जवाब आप जानना तो चाहेंगे पर जानते नहीं?


भैया से बात हो रही थी और पता चला कि मां को दो दिनों से तेज बुखार आ रहा है। बदन में और सर में दर्द भी है। घर पर बात हुई और मन चिंतित और परेशां हुआ।


क्या यह डेंगू हो सकता है?


दो दिनों में बुखार टूट गया है और वो थोडा बेहतर मसूस कर रहीं हैं, blood टेस्ट में भी डेंगू negative है। मन को सांत्वना मिली।


यह बहाना बन गया पुराने पन्नों को उलटने का और डेंगू के बारे में अपनी जानकारी को ताज़ा करने का। सोच आप सब से भी इसपर बातें हो



मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिंदी


दिन भर कि झूटी मुस्कानों के बीच झूठी गिट पिट अंग्रेजी से बोझिल मन जब शाम में हेमंत कुमार के गीत सुनकर फिर से तरोताज़ा हो अंतर्जाल के पन्नों में निराला और अग्येय को ढूंढता है, पढता है और सुकून पाता है, मन सोचता है यह जादू किसी और जुबान में क्यों नहीं होता।
पटना पहुँच कर सुरेन्द्र भाई से बाल बनवाते हुए मोहल्ले कि जो बातें और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर जो टिपण्णी जिस जुबान में होती है, वो हिंदी है, और उसका अनुवाद नहीं हो सकता। बातों का वह अंदाज़ और खुलापन हिंदी को मरने नहीं देता है।
हिंदी दिवस की शुभकामनायें

शनिवार, 4 सितंबर 2010

शैतान की परिकल्पना

मैंने यह पोस्ट लिखी है मगर नए सन्देश कि जगह यह एक नए पृष्ठ कि तरह प्रकाशित हो गया है। क्या आप इसे मेरे ब्लॉग पर ढूंढ और देख सकते हैं।
इसे कैसे सुधार जय बताएं।
धन्यवाद.

शनिवार, 14 अगस्त 2010

आज़ादी की सालगिरह मुबारक हो।
आपका लेख मुझे अच्छा लगा। गाँधी जी को हमें याद रखना होगा। वो हमारी रोशनी हैं। शिवम् मिश्रा जी थोड़े नाराज़ लगे, कोई बात नहीं, बहुत सरे लोगों ने अलग अलग तरह से अपने स्टार पर बलिदान दिया है और वे सभी हमारे पूजनीय हैं, मगर देश और काल से परे जो सच्चाई है वह सत्य और अहिंसा ही है, यही भारत की आत्मा है।
आपने अंग्रेजी मानसिकता के तिरस्कार की बात की है, मगर यहाँ भी हमें कोई वैर या द्वेष का भाव नहीं रखना चाहए, - अंग्रेजी मानसिकता क्या है? शायद आप उपभोक्ता वाद के तिरस्कार की बात कर रहें/रहीं हैं। फिर मैं आपसे सहमत हूँ, मगर इसे अंग्रेजी मानसिकता कहना पूरी तरह से सही नहीं है।
और जो स्वदेशी है हम उसपर गर्व तो बगैर किसी का तिरस्कार किये भी तो कर सकते हैं।
जय हिंद

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

झूठी बातें और दिल का दर्द.

आधे सच लिख कर बोल कर अपनों का दिल दुखाने और अपनों को पराया हम क्यों बनाते हैं? सनसनीखेज बात लिखने के लिए लोगों का दिल दुखाना तो ठीक नहीं खास कर जब यह पूरा सच न हो।
अपने कौन हैं और पराये कौन?
जिनके साथ हम १००० साल से रहते रहे हैं, जो हमारी बोली बोलते हैं, जो हमारी भाषा में लिखते हैं, वो तो हमारे अपने हैं, उनके दिल का ख्याल तो हमें रखना ही चाहिए।
हम याद करते हैं हिरोशिमा में हुई मानवता के सबसे बड़ी गलती की मगर ऐसा करते करते ही वही बीज बोने की कोशिश करते हैं जिससे की हिरोहिमा नागासाकी के जैसे ज़हरीले फल बनते हैं
यूरोप में यहूदियों पर जो जुल्म १९४०-४५ में हुये उसके पीछे तोड़े मड़ोरे sach ya jooth likhne aur bolne ki ek lambi parampara rahi hogi.
hum kuch vaisa na kare.

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

1857


१८५७ की क्रांति हमारे इतिहास की बड़ी मत्वपूर्ण घटना है। मैं पुस्तकालय में बैठा यूं ही समय काट रहा था। संयोग से मैंने पाया की अपने पुस्तकालय कार्ड की मदद से मैं the times के पुराने संस्करण को देख सकता हूँ- अंतरजाल पर। यह अखबार १९ वीशताब्दी में लन्दन से प्रकाशित होता था।

मैंने १८५७ के संस्करण में इंडियन mutiny विद्रोह को सर्च किया तो कई हैरान करने वाले तात्कालिक लेख मिले। कुछ तो यहाँ के संसद में सांसदों के बयां थे और कुछ भारत से अंग्रेज अफसरों के भेजे पत्र।
खैर एक मजेदार बात जो इससे उभर कर सामने आई वह थी १८५७ की क्रांति का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य।
इस समय ईरान के दरबार में रूस के लोगों का अच्छा प्रवाव था। उनकी योजना थी की ईरान की फौउज अफगानिस्तान पर हमला करे, और उन्होंने हेरात को अपने कब्ज़े में लिया भी था। होना ऐसा था की जब अंग्रज़ ईरान और अफगानिस्तान में उलझे हों तभी हिंदुस्तान में बगावत हो और सब कुछ बदल दिया जाय, मगर ऐन वक्त पर अंग्रेजों का ईरान और रूस के साथ कोई समझौता हो जाता है और उनकी फौज हिंदुस्तान की तरफ आ पाती है और यहाँ के विद्रो को निर्ममता से कुचल देती है। अंग्रेजों को सबसे ज्यादा परेशानी ६ बंगाल regiment के सिपाहियों से होती है जो की मूलतः बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के लोग थे। उन्हें ऐसा भी लगता है की इस विद्रोह की जड़ में मूलतः हिदुस्तानी मुसलमान हैं औ हिन्दू भी बाद में उनके साथ हो गए हैं।
खैर यह विद्रोह विभिन्न कारणों से दबा दिया गया। सबसे ज्यादा दमन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुआ और आगे भी यहाँ के लोगों aur musalmanon को अंग्रेजों ने aage badhne se roka. shayad is pradesh ke pichade honae ka ek karan yeh bhi ho.




सोमवार, 14 जून 2010

जो हो रहा है वह उससे गुस्सा होता है, हम अपने को अशक्त और लाचार मह्शूश करते हैं। आपका लेख इसी भाव को दिखाता है। यह कई लोगों के मन की बात है। शायद कुछ हो कभी न कभी । आपका मन दुखी है, इससे मुझे भी दुःख है, और संतोष भी की और भी लोग नाराज़ हैं।

गुरुवार, 3 जून 2010

धर्म और संस्कृति का परिवर्तन - अच्छा या बुरा

धर्म और संस्कृति का परिवर्तन - अच्छा या बुरा

भारत के इतिहास का अध्यन मेरे मन को दुखी कर देता है. इसमें, कदम कदम पर पराजय और मौकों को गवाने की कहानी है. बार .बार वे लोग हार जाते हैं जो इस जमीन और यहाँ की संस्कृति का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं.
सिन्धु घाटी की सभ्यता का लोप शायद बाहर से आये आक्रामक आर्यों के आक्रमण से हुआ.
यहाँ के मूल निवासी पराजित हुए और इसी देश में दुसरे दर्जे के लोग बन कर सदियों से जीते रहे.

बौध धर्म का उदय और विस्तार हुआ, प्रचलित पाम्परिक धर्म भी चलता रहा. यह स्थिति शायद अच्छी थी. मगर क्रमशः सामाजिक दोषों से देश ग्रस्त होता गया.

इस्लामिक आक्रमण हुए और आक्रमणकारी विजयी हुए. जो मुस्लमान यहीं के हो गए और जब उन्होंने बाहरी आक्रमण का सामना किया तो हार गए. महमूद घज्नवी, मोहम्मद घोरी, बाबर, अहमद शाह अब्दाली बहार से आये विजेताओं की फेहरिस्त हैं. इनके विजयी होने का हमारे इतिहास पर बड़ा व्यापक असर हुआ है. पानीपत की तीन लड़ाइयों ने इतिहास का रुख बदल दिया और तीनों बार जो हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे थे वे हार गए.

फिर अंग्रेजों का आना हुआ और आश्चर्य होता है की वो भी जीत गए. उनके जाते जाते पकिस्तान बन गया. देश का बहुत बड़ा हिस्सा यहीं के लोगों के लिए विदेश हो गया.

आज बचे हुए भारत में लोकतंत्र है जिस पर मुझे गर्व और ख़ुशी होती है. मगर यह देश संकटों से ग्रस्त दीखता है. बहुत बड़ी आबादी असंतुष्ट है.

मैं चाहता हूँ की भारत बचा रहे और यहाँ की संस्कृति बची रहे. यह देश बढे और विस्तार करे.
चाहता हूँ की पाकिस्तान और बंगलादेश भी हमारे दुश्मन न होकर हमारे ही बंधू हमारे ही लोग हों.

मगर यह क्या है जो मैं बचाना चाहता हूँ? मैं किसका विस्तार चाहता हूँ? मैं किस संस्कृति की बात कर रहा हूँ? क्या मैं "हिन्दू" धर्म और इसकी व्यवस्था को बनाये और बचाना चाहता हूँ ? क्या मैं इसका विस्तार चाहता हूँ? शायद हाँ शायद नहीं.

अगर सोचूँ तो लगता है की समय समय पर बाहर के लोगों और उनके विचारों का इस देश में आना हमारे देश को समृद्ध और सम्पूर्ण बनाता है. इस्लाम और अंग्रेजो से जो हमारा गहरा मिलना जुलना हुआ है उससे बहुत कुछ अच्छा हुआ है. हम बेहतर हुए हैं. अगर किसी तरह यह आचार विचारों का मिलन बगैर पराजित और परतंत्र हुए हो सकता तो अच्छा होता. मगर यह तो इतिहास है हम इसे बदल नहीं सकते.

बदलना अच्छा है और यही समाज को जीवंत रखता है. इसमें मुझे कोई शक नहीं. तो फिर मुझे क्यों बुरा लगेगा अगर पूरा देश बदल कर इंग्लिश बोलने लगे या धर्म परिवर्तन कर लें. मैं इंग्लिश जानता हूँ और बोलता पढता भी हूँ. और यह अच्छा है बुरा नहीं.

आप क्या सोचते हैं??????

गुरुवार, 27 मई 2010

जब जो करूँ उससे अलग कुछ न सोचूँ।

जीने के कई तरीके हैं। अलग अलग लोग अलग अलग तरीके से जीते हैं।

उपर उपर सरल गति से चलती जिन्दगी में भी सतह के अंदर तनाव और चिंता की लहरें मन को परेशां करती रहती हैं।

हमें बहुत कुछ करना होता है। बहुत सारी चिंताएं होती हैं। एक काम करते हुए दुसरे काम के बारे में सोचना पड़ता है। जीवन में तनाव का रंग अनजाने घुलने लगता है।

सोचा और पाया एक उपाय।

सूत्र : जब जो करूँ उससे अलग कुछ न सोचूँ।

अगर चल कर काम पर जा रहा हूँ तो यह न सोचूँ की पहुँच कर क्या करना है बल्कि अपनी चाल के प्रति सजग रहूँ। अगर ब्रुश कर रहा हूँ तो भी सारी सजगता इसके प्रति ही हो। अगर वंदना कर रहा हूँ तो फिर उससे इतर कुछ न सोचूँ।

यह MULTITASKING के विरुध्ध है। क्या इससे हमारी कुशलता और क्षमता कम हो जायगी। शायद नहीं। निश्चय ही चिंताएं ख़त्म होगीं और अनजाना तनाव भी कम होगा।

आज बुद्ध पूर्णिमा है। बधाई हो! शुभकामनायें.