गुरुवार, 22 मार्च 2012

छिद्रान्वेषण

मानव मन की कमजोरियां जिसके बारे में अक्सर हम सुनते आये हैं वो है "काम क्रोध मद मोह लोभ" आदि. कहीं संस्कृत के पाठ में पढ़ा था कि एक दोष है जिससे बचना   चाहिए   और वो है-  छिद्रान्वेषण अर्थात दोष ढूँढने की प्रवृत्ति .


फिर न जाने कब मन में कब यह बात बैठ गई कि दुनिया को या अपने परिवेश को सुन्दर बनाना है तो हर समय पैनी नज़र रखनी होगी कि कहाँ क्या गलत है उसका प्रतिकार और विरोध किया जाय. बात भी सही लगती है.य़ेही है क्रांति का सूत्र. दोष ढूंढो   और पिल पड़ो.

खैर हमने तो कोई क्रांति ना की मगर एक लत सी पड़ गई दोष देखने की. पहले तो खुद में दोष ढूंढता  रहा कुछ सुधरने की कोशिश भी की मगर ज्यादा आत्मग्लानि ही हुई और  सुधार कम. 

काम के परिवेश में भी ऐसा होने लगा कि लोगों के किये में दोष ही ज्यादा    नज़र आने लगा, उनकी उपलब्धियां और निष्ठा कम. ऐसा लगने लगता है कि जो सही किया जा रहा है वो तो स्वाभाविक है, पता करने की बात तो यह है कि  गलत क्या है -तभी तो नज़र पारखी कहलायेगी.

परिवार एकल हो गया और मैं सर्वे सर्वा.  मुझे आइना दिखाने वाले दादा, ताऊ और बाबू जी तो साथ हैं नहीं  और मैं पिता या पति के रूप में एक अधिकार और प्रभाव का अवतार  बन जाता हूँ.. उम्र और अनुभव की दृष्टि   से आप सबसे बड़े हो जाते हैं. ऐसे में यह बुराई खूब नुकशान पहुँचाती है. धीरे धीरे यह पूरे माहौल  को कडुआ और कसैला कर देता है. श्रीमती जी की बनाई रसोई में आप यह ढूँढने लगते हैं कि क्या बेहतर हो सकता था. बच्चों के प्रयास औए कार्यों में भी पारखी नज़र बस य़ेही देख पाती है कि कहाँ सुधार की  आवश्यकता है. और फिर आप चुप भी नहीं रह सकते; नहीं तो क्रांति कैसे आयेगी? सुधार का परिवर्तन चक्र कैसे गतिमान होगा?

मेरे एक वरीय सहयोगी हैं डॉ मैथ्यू . उनके कमरे में कई सूक्तियां लगी होती हैं. उनमे से एक जिसने मुझे प्रभावित किया है वह है "आप हर किसी जिनसे मिलते हैं उनके प्रति दया का भाव रक्खें क्योंकि हर कोई अपने स्तर पर  अपनी एक मुश्किल जंग लड़ रहा है." फिर नज़र बदले सी लगी.  जिसे मैं विभाग में सबसे बड़ा निकम्मा समझता था उनकी मजबूरियों और सीमाओं   का एहसास होने लगा.उनके दोष घुलने लगे.

अचानक बापू के तीन बंदरों  का अर्थ समझ में आने लगा. छिद्रान्वेषी सिर्फ एक कडुआ कसैला व्यक्तित्व     हो सकता है कोई क्रांतिकारी या सुधारक नहीं. जिन्दगी कितनी सुन्दर और अपनापन भरी   हो जाती है जब हम छिद्रों के अन्वेषण में वक्त और सामर्थ्य जाया न कर के जो सुन्दर है, निष्ठा और प्रयासों का फल है उसके प्रति सजग हो जाते है. 

दूसरों में दोष ढूंढना सिर्फ तभी ठीक है जब आपसे इसका आग्रह किया जाय. इसी लिए कहते है की मुफ्त के कोच बनने से बचें.

तो आयें इस छिपे अनजाने से दोष से बचें और एक बेहतर जिन्दगी से रूबरू हों. शुभकामनायें..

 







  

 

मंगलवार, 6 मार्च 2012

रंग भरी होली: बहुरंगी दुनिया





हर कोई अपनी जंग लड़ रहा है. इसमें साथी की भी खोज होती है, और दुश्मन भी पहचाने जाते हैं. भय और शक से धुंध हुई दृष्टि दोस्त और दुश्मन को पहचानने में भूल करती है. फिर पश्चाताप होता है 

हम अपनी पहचान खोज रहे होते हैं और अक्सर इस खोज में - कुछ अपना बनाने के क्रम में काफी कुछ गवां देते हैं, पराया मान लेते हैं. कुछ बचाने की  चाहत में काफी कुछ मिटा डालने   को तैयार हो जाते हैं. अंत में पश्चाताप होता है. 


अपने से अलग जो है उसे स्वीकार करना उसकी पूरी इज्ज़त   के साथ, ये ही गारंटी है हमारी इज्ज़त और वजूद  के बचे  रहने  की. कोई मज़ा नहीं एक रंगहीन दुनिया का. 


यकीन रखना होगा कि जो सच  और सुन्दर है वही बचेगा, शेष काल के ग्रास बनेंगे, और मोह रख  कर भी हम उसे बचा न पाएंगे.


हम सहज हों . कुछ पराया नहीं, सब कुछ हमारी ही विरासत है, विभिन्नता ही सौंदर्य को जीवित रखती है. हम और हमारा समाज सुन्दर हो. एकरंग नहीं - चाहे लाल या हरा. होली की  शुभकामनायें - ढेरों   रंगों भरी.












शुक्रवार, 2 मार्च 2012

शरीर विज्ञान के मूल शब्द


आज कोई अंग विशेष से सम्बंधित न हो कर ऐसे शब्दों से शुरू कर रहा हूँ जो शरीर की मौलिक संरचना को समझने के लिए आवश्यक हैं:
  • कोशिका (सेल- cell): जैसे दीवार ईंटो  से बनी  होती  है शरीर कोशिकाओं से. कोशिका सबसे सूक्ष्म इकाई है जो जीवित होती है- जैसे अणु किसी भी पदार्थ का सूक्ष्मतम कण होता है जिसमे उसके सारे गुण विद्यमान हों. कोशिका इतनी छोटी है  की  हम उसे नंगी आँखों से नहीं देख सकते. मगर जब सूक्ष्मदर्शी (microscope) से देखें तो यह अपने आप  में एक पूरा संसार है. हमारे शरीर में सैकड़ों तरह की अलग अलग कोशिकाए होती है जो अलग अलग काम करती है. उदाहरण के तौर पर :
    • श्वेत रक्त कोशिका (white  blood  सेल)- रक्त के साथ बहती कोशिका जिसका काम संक्रमण के विरुद्ध लड़ना  है - तो यह है सबसे छोटा सिपाही/लड़ाकू.
    • न्यूरोन (neuron ) : एक बेहद खास तरह की कोशिका जिससे हमारा मष्तिष्क, मेरुदंड (spinal  chord) और नसें बनी हैं. यह शरीर के लिए एक तरह से processors  और wire  को बनाने की "ईंट" है.
    • epithelial  सेल (हिंदी शब्द मालूम नहीं): ये एक प्रकार  की बेहद   चिपटी कोशिकाए होती हैं जो आपस में मिल कर एक चादर सा बना लेती हैं जो अंगों को ढक लेता है- जैसे "प्लास्टर" दीवार को. हमारे त्वचा की सबसे बहरी परत इसी से बनी है.
कई सूक्ष्म   जीव होते हैं जिनका शरीर सिर्फ एक कोशिका का बना होता है.जैसे बैक्टेरिया , अमीबा, वायरस आदि.

शुक्राणु (स्पर्म सेल) एक खास तरह की कोशिका होती है जो एक द्रव माध्यम में गतिशील होती है. मगर आप क्या जानते हैं की   क्या खास बात है इस जीवन निर्माता कोशिका की?  उत्तर  फिर  कभी .

यह भी जानने की बात है की जब कैंसर होता है तो कहीं कोई एक कोशिका ही होती है जो विद्रोही हो जाती है और उसका विस्तार होने लगता   है.अब अलह अलग तरह की कोशिका तो अलग अलग तरह  के कैंसर!!

  • ऊत्तक (tissue ):  एक प्रकार की कोशिकाए  एक खास संरचना स्टाइल में आपस में मिलकर, एक कालोनी  जैसी    बना लेती हैं  और इसे ही उत्तक कहते हैं. तो अलग अलग उत्तक को जब सूक्ष्मदर्शी के अन्दर देखें तो उनका अलग अलग पैटर्न होता है. जब इस pattern  में गड़बड़ी होती है तो वह कैंसर की पहली निशानी होती है. उत्तक के विज्ञान को histology / histopthology कहते हैं.   



यह है चित्रकार द्वारा बनायीं तश्वीर, मगर microscope    के अन्दर अलग ही  दीखता है - ये रंग  असली  नहीं हैं, मूलतः कोशिकाएं रंगहीन होती   हैं मगर histopathologist उसे देखने के पहले उस पर रंग डाल देते हैं देखने की सुविधा  के लिए.  



तो फिर आज के लिए इतना ही. फिर मिलेंगे. खुदा हाफिज़ ! राम राम!

हमारा शरीर : हमारी भाषा






अभिवादन!
अपनी जुबान में आप सबों से "वर्धमान" के जरिये रूबरू तो होता रहा हूँ मगर हिंदी ब्लॉग जगत में शामिल होने का एक जो उद्देश्य था कि अपनी भाषा में शरीर और स्वस्थ्य के उपर कुछ लिखूं.थोड़ा प्रयास किया भी मगर अधूरा और असंतुष्ट ही रहा.

अब इस नए ब्लॉग "हमारा शरीर : हमारी भाषा" के जरिये एक नई और गंभीर कोशिश है. आप सबों का सुझाव और उत्साह वर्धन सदैव संबल रहा है और इसकी अपेक्षा रहेगी.

तो फिर आप सबों का स्वागत करे हुए "स्वान्तः सुखाय" का भाव ले कर और "बहुजन हिताय" की कामना के साथ इसकी शुरुआत करता हूँ.

धीरे धीरे बहुत सी बातें होंगी मगर शुरू कि जो योजना है, वह है स्वस्थ्य सम्बन्धी एक शब्द कोष  विकसित करने की. तो शुरुआत के कुछ पोस्ट में शरीर से सम्बंधित सामान्य शब्दों को समझाने कि कोशिश होगी. आशा है कि इससे हमें चिकित्सकों कि बातों को समझने में सुविधा होगी और अपनी बात समझाने में आसानी.

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

खुले ख्याल

कई खुले ख्याल दिमाग में आते और जाते हैं. जैसे- उग आये कई छोटे पौधे - इनकी देख भाल चिंतन की सिंचाई से मैं नहीं करता हूँ और कोई पकी फसल तैयार नहीं हो पाती है.ये अध् पके ख्याल मस्तिष्क के नभ पर शरद के मेघ की तरह मंडराते तो  है मगर घनीभूत हो बरस नहीं पाते.


इन अध् पके ख्यालों से भी एक मोह सा होता है. या फिर अकेला आलसी कंजूस  मर्द - रात पकी दाल की हांड़ी को ही खुरच   कर सुबह की रोटी खा जाना चाहता है.


जिंदगी एक jigsaw पहेली है - और हर छोटे छोटे निर्णय जो हम अनजाने अनायास लिए  चले जाते हैं; इस बृहत् दृश्य को बनाने वाली बिन्दुओं की तरह हैं. चाय का प्याला और चीनी का डिब्बा सामने पड़ा है - अब यह तो मेरा ही मन है की मैं चीनी लूं या नहीं. इस छोटी सी choice का क्या मतलब है?


प्रश्न बड़ा गंभीर है! ईश्वर है या नहीं? उसका स्वरुप क्या है? अलग अलग ग्रन्थों,  पैगम्बरों ने समझाने बताने की कोशिश तो की है मगर समझ आता नहीं. ओशो ने कहा की बुद्ध ने २५०० वर्ष पूर्व कहा था   की     यह गंभीर प्रश्न मिथ्या है धोखा है - फ़िज़ूल है - वक्त जाया न करो...... फिर तो उन सब से बचो जो  यह समझाने की मदद करना चाहते हैं. अब कल इम्तिहान हो तो आज जो दोस्त हिट फिल्म दिखाने आये उससे तो बचना  ठीक ही है.


अखबार में खबर छपी है की ८० वर्ष के बुजुर्ग २० वर्ष की आयु की तुलना में ज्यादा सुखी हैं. ५० के इर्द गिर्द तो सबसे बुरा हाल है. वयोवृद्ध बच्चों की तरह प्रसन्न हैं. - ऐसे, यह सर्वेक्षण पश्चिमी है तो थोडा ध्यान रखना होगा! खैर, जो खुश वृद्ध हैं - उनका कहना है " खतरा/रिस्क लिया तो वही अच्छा था और न लिया तो वही पश्चाताप है." पर जाने दें यह तो पश्चिमी बात   है. 


प्लास्टिक - जब ५०- ६० के दशक   में आई थी - तो प्रचारित हुआ था   क i  यह वो चीज़ है जो हाथियों की जान बचायगी-  चूँकि जंगल कम कटेंगे.  अब लोग परेशां हैं. ५% प्लास्टिक ही recycle होती  है. बन गयी तो कम से कम 500 वर्षों  तक  तो रहेगी  ही. " a material suitable to produce disposable but irony is that it is most indestructible"  




















सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

रामचरितमानस: राम कथा के परे

तुलसी दास कृत रामचरितमानस कई मायनों  में एक मापदंड कृति है.साहित्य की दृष्टि से  हिंदी की सिरमौर कृति है, धार्मिक ग्रन्थ के रूप में तकरीबन  हर हिन्दीभाषी के घर में इसकी उपस्थिति है और सच्चे मायने में एक लोक ग्रन्थ है जिसका उद्धरण गाँव के अनपढ़ भी अनायास देते मिल जायेंगे.

सामान्य तौर पर ऐसा माना जाता है की यह दशरथ पुत्र राम की कथा है और तुलसीदास ने इसे दास्य भाव से भक्ति की भावना से लिखा है.

श्री राम की कथा तुलसी के पूर्व भी लोकसमान्य में प्रचलित थी. तुलसीदास ने जब जन साधारण की भाषा में आज से ४०० वर्ष पूर्व इसकी रचना की थी तो उन्हें विद्वत जनों में इसके विरोध का खूब  एहसास था. उन्होंने  शुरू  में ही  निंदकों "खल" की वंदना की है. मगर विद्वत जन इसका क्यों विरोध कर रहे थे? ऐसा   क्या था जो वो जन साधारण को बोली में उन तक नहीं पहुँचने देना चाहते थे? "वह"  सिर्फ एक कहानी हो ऐसा शायद ही हो.  

रामचरित मानस के प्रारंभ के पन्नों को पढने से मुझे ऐसा लगा की शायद यह सर्वविदित राम कथा   के परे भी कुछ कहना चाह रही है.

तुलसीदास इसके शुरुआत में ही कहते हैं की यह कथा गूढ़ ( कठिन , क्लिष्ट, गंभीर )  है, और गुरु के बताने पर ही वो इसे उम्र बीतने पर ही समझ पाए - इससे ऐसा संकेत मिलता है कि इसका कोई सांकेतिक अर्थ है जो सतही अर्थ से गंभीर है.
  
कथा ऐसी है कि इसे सबसे पहले शिव ने पार्वती से कहा जिसे काक्भुशुन्दी ने सुना और फिर ऋषि याज्ञवल्क्य ने भारद्वाज से कहा और अब तुलसीदास इसे लोकजन के   लिए कह रहे हैं.     

महर्षि भारद्वाज भी याज्ञवल्क्य से ऐसी ही प्रार्थना  करते हैं कि जो "राम" हैं क्या वो वहीँ हैं जो जग विदित दशरथ पुत्र राम हैं? ऐसा लगता है कि याज्ञवल्क्य से इस कथा को सुनने के पूर्व ही उन्हें कहानी तो मालूम थी मगर इसमें कुछ था जो वो समझ नहीं पाए थे. 

शिव ध्यान निमग्न हैं, भावविह्वल हैं, - पार्वती शिव के इस भावावस्था को समझना चाहती हैं - और शिव उन्हें यही समझाने के लिए "राम कथा" सुनाते हैं.   फिर यह मुझे लगता है कि कोई गंभीर बात है जो सांकेतिक रूप में कही गई हो. 

कहीं रामचरितमानस आध्यात्मिक विकास यात्रा का सांकेतिक वर्णन तो नहीं? कहीं राम सीता और रावण सब हमारे अन्दर ही तो नहीं? हालाँकि ऐसा कहना भी कोई नई बात नहीं है - मगर रामचरितमानस पढ़ते ऐसा लगा कि शुरू में ही   तुलसीदास ने इसके सटीक संकेत दिए हैं. 

मैं स्वास्थ्य की वजह से तत्काल काम पर नहीं जा पा रहा हूँ और इसी लिए  इस ग्रन्थ को पढने का अवसर मिला है. मेरे पास जो प्रति है उसमे प्रचलित हिंदी में सरलार्थ नहीं है. इसलिए मैं  बहुत कुछ नहीं भी समझ पाता हूँ. मगर अगर ठहर ठहर कर पढूं तो अर्थ कुछ खुलते   से भी लगते हैं.
तुलसीदास की ख्याति ज्योतिषी   के रूप में भी खूब थी. क्या मानस में इसकी झलक मिलती है?  अब तक तो मैंने नहीं पाया है. तुलसीदास अकबर के समकालीन थे मगर उनकी रचना में इसकी झलक भी नहीं मिलती है. शब्दं के चयन में भी तत्सम शब्द ही मिलते हैं- हाँ "गरीब नवाज" उन्होंने रामके लिए प्रयुक्त किया है.








    




       

सोमवार, 16 जनवरी 2012

शाश्त्रीय संगीत

मुझे संगीत का ज्ञान नहीं है . कोरा हूँ, निरक्षर.
बचपन में रेडियो पर सुनकर लगता था की "क्या ये भी संगीत है?" फिर जैसे जैसे बड़े हुए तो थोड़ी रूचि हने लगी. जो प्रसिद्द नाम थे उनके संगीत सुनने की इच्छा होने लगी. दूरदर्शन पर आये 'मिले सुर मेरा  तुम्हारा' ने इन कलाकारों के दर्शन कराये.

अभी हाल में ऐसे ही भटकते हुए youtube पर कुमार गन्धर्व से रूबरू हुआ- और उनके संगीत ने खूब प्रभावित    किया. उनके बारे जानने लगा तो और भी उत्सुकता हुई. बुरा भी लगा की इन सच्चे कलाकारों के विषय में हम कितना कम जानते हैं. इनका जीवन ऐसी कहानी लगी की इस पर एक फिल्म बनायीं जा सके. अद्भुत प्रतिभावान बालक- लोगों ने कुमार गंधर्व कहा. अपने गुरु की एक और शिष्या से विवाह किया, गुरुदेव नाराज हुए. TB हो गया -१९४० - ५०  की बात है - तब  यक्ष्मा एक जान लेवा बीमारी थी. पत्नी भानुमती की सेवा से और हाल में आई नई दवाइयों से जान बच गयी. इनका पुत्र  मुकुल शिवपुत्र. ये भी श्रेष्ठ कलाकार गायक मगर जल्दी ही काल कलवित हो गए - व्यसनों और शराब के कारण.   कुमार गंधर्व की पत्नी भानुमती भी जल्दी ही स्वर्ग सिधार गयीं. उन्होंने दूसरी शादी की - और इन दोनों ने साथ साथ में बहुत कुछ गाया प्रकाशित किया.


हाल ही में बीबीसी पर पंडित भीमसेन से एक मुलाकात का प्रसारण हुआ था. उनसे जब उनके समकालीन श्रेष्ठ गायक के विषय में पूछा गया तो उन्होंने एक ही नाम लिया था  और वो थे-कुमार गंधर्व.
शुभा मुद्गल  से तो काफी लोग अरिघित हैं- वो कुमार गंधर्व की शिष्या रही हैं.

 संगीत के क्षेत्र में एक और नाम है श्री भातखंडे. इनका महान योगदान रहा है - इन्होने सबसे पहले हिन्दुस्तानी संगीत को लिपिबद्ध किया और तमाम राग आदि का संकलन कर इसे एक सैद्धांतिक विषय के रूप में विकसित किया जिसका ही परिना था की भारतीय संगीत विश्वविद्यालाओं   में भी पढ़ी   जाने लगी.

बस इतना ही लिखूंगा. इनके बारे में पढने जानने लगा तो यह एक सुन्दर यात्रा सी बन गयी. ये अब हमारे गौरव   और धरोहर  हैं.
शुभा मुद्गल के ब्लॉग पर एक हाल में लिखी ब्लॉग - मुंबई में जो महाराष्ट्र के बहार से आ कर बसें है पर सार्थक और मजेदार बहस है. वक्त मिले ओ जरूर देखें. शुभामुद्गल.कॉम
शुभ रात्रि.

रविवार, 15 जनवरी 2012

आज का दिन १५ जनवरी 2012



रात खूब ठण्ड थी। बाहर एक टब में रखा पानी जम गया है अपनी सतह पर। रात करवटों में बीती, शायद कुछ ही घंटे सो पाया । दर्द में करवटें बदलता रहा। सुबह जल्दी ही फिर जाग गया सबसे पहले। दैनिक क्रिया से निवृत्त हो नहा कर छोटी सी पूजा की - आज मकर संक्रांति है। मंदिर जाना चाहता था पर विवशता है।





आज "माघे साते" है मतलब की माघ मास में सातवे दिन इतवार है- कभी कभी ही होता है- और मम्मी ने बताया की आज के दिन नमक न खाओ तो पूरे साल इतवार को नमक छोरने का फल मिलता है।





धीरे धीरे बच्चे जगे । सबकी छुट्टियाँ है।





मैं बिस्तर में ही पड़ा रहा, और कमरे में सुहानी धूप आती रही शाम तक। पत्रहीन शाखाओं के परे शुभ्र स्वच्छ आकाश में सूर्य देव चमकते रहे। अब कठिन सर्दी के दिन गिने चुने ही हैं। पत्रहीन वृक्ष के वसंत का इन्तेज़ार ख़त्म होने वाला है। दूर जाते सूर्य देव फिर से वापसी की यात्रा पर हैं- आज तो मकर राशि में भी प्रवेश कर चुके है।
उनका वापस आना अब निश्चित है. क्या मैं भी अपने दर्द से मुक्त हो उनके स्वागत मे खड़ा हो सकूँगा? बच्चों को ले सुमीता दोपहर मे पार्क चली गयीं. मैं अकेला थोड़ी देर टीवी देखता रहा . फिर लगा की लेटना ही होगा. उपर चला आया



अब सूर्यास्त हो चला है और अंधेरा होने ही वाला है. एक और चमकीला दिवस बीत गया- मैंने कुछ खास ना किया. इधर उधर कुछ बातें की- मगर खास बात ये जाना कि पंडी जी(गुरु जी) 80 ke vay me स्वस्थ है रोज टहलते हुए मुस्तफापुर से सूरजगढ़ा शाम मे टहलते जाते और आते हैं. आख़िर बार उनसे २-३ वर्ष पहले ही मिला था. अपने इर्द गिर्द जिनसे भी मिला उनका अपना सबसे थोड़ा था मगर वो सबसे संतुष्ट और प्रसन्न लगे- मेरी दौड़ और उसकी पहलियों को और उलझाते से। जान कर अच्छा लगा की वो स्वस्थ हैं और ग्लानि सी हुई की उनका शिष्य इस उम्र मे बिस्तर पकड़े है।

आप सब को शुभकामनायें। बस इतना ही किया कि किसी को कोई तीखा जला बुझा न कहा। गुस्सा न किया। विवश को क्रोध ज्यदा होता है। वचन से हिंसा सबसे आम हिंसक वृत्ति है। हम सब इससे बचें.